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Karambhumi by Munshi Premchand



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आज़ादी के पहले की यह कहानी है, लेकिन ऐसा लगता है कि बहुत कुछ अभी भी बदला नहीं है—जैसे गरीबों और अमीरों के बीच अंतर, जैसे धर्म, जाति और भाषा की लड़ाइयाँ, जैसे नारी का सम्मान, जैसे धर्म के ठेकेदार बने कुछ लोग।



करमभूमि अमरकांत से शुरू होती है। हमें लगता है कि यही हमारी कहानी का नायक है, लेकिन जैसे-जैसे नए पात्र आते-जाते हैं, वैसे-वैसे नए नायक और नायिकाएँ भी उभरते जाते हैं। अमर जो अपने भीतर एक आदर्शों की लड़ाई लड़ रहा होता है, वह धीरे-धीरे समाज में हो रहे अन्याय को समाप्त करने की लड़ाई में परिवर्तित हो जाती है, और हमें इसका एहसास भी नहीं होता। एक चिंगारी जो अमर ने लगाई थी, वह ऐसी आग बन जाती है कि सभी एक-एक करके इस संघर्ष में, इस अग्नि में खुशी-खुशी कूद पड़ते हैं और अंततः विजय प्राप्त करते हैं।



एक लड़ाई थी गरीबों के लिए नगरपालिका से ज़मीन लेकर घर बनाने की, और दूसरी लड़ाई थी आर्थिक मंदी के चलते लगान माफ़ी की। जीत तो होती है, मगर इतनी आसानी से नहीं। कई जानें जाती हैं, हमारे सभी मुख्य पात्रों को जेल की रोटी खानी पड़ती है। लेकिन अंततः विजय मिलती है। पर उस जीत में भी वैसी खुशी नहीं होती, क्यों? यह मैं बता दूँ, तो शायद आपके पढ़ने का रोमांच कम हो जाए।



इस पूरे संघर्ष के दौरान, हर पात्र अपनी-अपनी व्यक्तिगत लड़ाई भी लड़ रहा होता है—अपने सिद्धांतों को लेकर, अपनी परवरिश से बने स्वभाव को लेकर। और इस महासंग्राम को जिस सुंदरता से लिखा गया है, उस पर हमें संदेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह कहानी स्वयं प्रेमचंद जी द्वारा लिखी गई है। हाँ, हिंदी थोड़ी कठिन है, लेकिन इसमें गूगल बाबा मददगार साबित हो सकते हैं!





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